भारतीय संसदीय इतिहास में वर्ष 1957 का लोकसभा सत्र एक विशेष घटनाक्रम का गवाह बना था। यह वह साल था जब उत्तर प्रदेश के बलरामपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुनकर आए एक युवा सांसद ने सदन में पहली बार अपनी आवाज उठाई थी। भारतीय जनसंघ के प्रतिनिधि के तौर पर संसद पहुंचे Atal Bihari Vajpayee का यह पहला भाषण ही वह मोड़ साबित हुआ, जिसने उन्हें एक सामान्य राजनेता से अलग कतार में खड़ा कर दिया।
आजादी के एक दशक बाद देश अपनी विदेश नीति, सुरक्षा रणनीति और अंतरराष्ट्रीय पहचान को लेकर कई तरह के सवालों से जूझ रहा था। इसी माहौल में वाजपेयी ने सदन में अपना पहला वक्तव्य दिया। उनका यह भाषण किसी व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप या राजनीतिक शोर-शराबे से कोसों दूर था। उन्होंने जिस विषय को चुना, वह था—भारत की विदेश नीति, चीन के साथ संबंध और गुटनिरपेक्ष आंदोलन। इन गंभीर विषयों पर उस दौर में वरिष्ठ सांसद भी बोलने से कतराते थे, लेकिन युवा वाजपेयी ने पूरी स्पष्टता और तथ्यों के साथ अपनी बात रखी।
नेहरू ने की थी भविष्यवाणी
वाजपेयी के भाषण की सबसे अहम बात यह थी कि इसमें विपक्ष की आक्रामकता की जगह तर्कों की धार थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि विदेश नीति भावनाओं से नहीं, बल्कि दूरदृष्टि और संतुलन से संचालित होनी चाहिए। पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में दृढ़ता और संवाद के संतुलन पर उनका जोर था। सदन में उस दिन छाई असामान्य शांति इस बात का सबूत थी कि सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही उस नए सांसद को कितनी गंभीरता से सुन रहे थे।
इस भाषण का प्रभाव इतना गहरा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री Jawaharlal Nehru भी खुद को रोक नहीं पाए। नेहरू ने उस वक्त जो टिप्पणी की, वह आज भी भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज है। उन्होंने कहा था कि इस युवक को ध्यान से सुना जाना चाहिए, क्योंकि इसमें भविष्य की बड़ी संभावनाएं छिपी हैं। यह महज शिष्टाचार नहीं, बल्कि वाजपेयी की प्रतिभा की स्वीकारोक्ति थी।
विपक्ष की नई परिभाषा
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, 1957 का वह भाषण इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि इसने विपक्ष की भूमिका को एक नया आयाम दिया। वाजपेयी ने साबित किया कि विपक्ष का काम सिर्फ विरोध करना नहीं है, बल्कि राष्ट्रहित में वैकल्पिक दृष्टि रखना भी है। उनकी भाषा में कटुता के बजाय स्पष्टता थी, जिसने उन्हें जनसंघ के दायरे से निकालकर एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित किया।
यही वह नींव थी जिस पर आगे चलकर वाजपेयी का पूरा राजनीतिक जीवन खड़ा हुआ। चाहे बाद में विदेश मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल हो, संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में दिया गया भाषण हो या कारगिल युद्ध के बाद का राष्ट्र के नाम संदेश—हर जगह उसी संयम और गरिमा की झलक मिली, जिसकी शुरुआत 1957 में हुई थी।





