Thu, Dec 25, 2025

संसद में सिर्फ दो सांसद से 13 दिन की सरकार तक: अटल बिहारी वाजपेयी ने कैसे तय की सत्ता और विपक्ष की मर्यादा

Written by:Ankita Chourdia
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Atal Bihari Vajpayee Birth Anniversary: भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी का सफर संख्याबल से नहीं, बल्कि सिद्धांतों से परिभाषित हुआ। जनसंघ के दौर में सीमित सांसदों के बावजूद उन्होंने विपक्ष की मजबूत आवाज बुलंद की, वहीं 1996 में बहुमत न होने पर सत्ता छोड़ने में भी संकोच नहीं किया।
संसद में सिर्फ दो सांसद से 13 दिन की सरकार तक: अटल बिहारी वाजपेयी ने कैसे तय की सत्ता और विपक्ष की मर्यादा

भारतीय राजनीति में सत्ता का आना-जाना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन सत्ता से विदा लेने का सलीका हर किसी को याद नहीं रहता। पूर्व प्रधानमंत्री Atal Bihari Vajpayee उन दुर्लभ राजनेताओं में शामिल हैं, जिनके सियासी सफर के दो बिल्कुल विपरीत छोर एक ही विचारधारा से जुड़े नजर आते हैं। चाहे संसद में उनकी पार्टी की संख्या नगण्य रही हो या वे देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हुए हों, उनका राजनीतिक आचरण हमेशा एक जैसा रहा।

1950 और 60 के दशक में भारतीय जनसंघ की संसदीय मौजूदगी बेहद सीमित थी। कई वर्षों तक लोकसभा में जनसंघ के सांसदों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती थी। उस दौर में वाजपेयी विपक्ष की बेंच पर बैठते थे। उनके पास न तो पर्याप्त संसाधन थे और न ही संख्याबल का जोर। इसके बावजूद, तत्कालीन संसदीय बहसों और संस्मरणों में यह बात दर्ज है कि वाजपेयी ने कभी भी कम संख्या को अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया।

तर्क को बनाया हथियार

वाजपेयी की संसदीय राजनीति का मूल आधार यह था कि लोकतंत्र में विचार और तर्क, संख्याबल से अधिक प्रभावी और स्थायी होते हैं। सीमित सांसदों के बावजूद वे विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों जैसे गंभीर विषयों पर सदन में खुलकर अपना पक्ष रखते थे। उनकी तार्किक क्षमता का ही असर था कि सत्ता पक्ष भी उनकी बातों को गंभीरता से सुनता था। यही वह समय था जब वाजपेयी की छवि एक ऐसे विपक्षी नेता के रूप में बनी, जो केवल विरोध के लिए विरोध नहीं करता, बल्कि एक वैकल्पिक दृष्टि भी प्रस्तुत करता है।

1996 का ऐतिहासिक भाषण और सत्ता त्याग

मई 1996 में राजनीतिक परिस्थितियां बदलीं और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि, उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। महज 13 दिनों की सरकार के बाद लोकसभा में विश्वास मत का सामना करना पड़ा। यह वह क्षण था जब कई नेता सत्ता बचाने के लिए राजनीतिक जोड़-तोड़ का रास्ता अपना सकते थे, लेकिन वाजपेयी ने दूसरा रास्ता चुना।

सदन में खड़े होकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे बहुमत के बिना सत्ता में बने रहने का कोई प्रयास नहीं करेंगे। उनका वह भाषण भारतीय संसदीय इतिहास में एक दस्तावेज की तरह है, जिसमें उन्होंने हार को स्वीकार किया, लेकिन बिना किसी कटुता के। उन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सम्मान करते हुए यह संदेश दिया कि सत्ता से अधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत होते हैं। उन्होंने देश को बताया कि सरकार का गिरना लोकतंत्र की विफलता नहीं, बल्कि उसकी प्रक्रिया का हिस्सा है।

इन दो घटनाओं—संसद में दो सांसदों वाला दौर और प्रधानमंत्री पद से विदाई—को एक साथ देखने पर वाजपेयी की राजनीति का मूल चरित्र स्पष्ट होता है। जब संख्या कम थी, तब उनका आत्मविश्वास नहीं डगमगाया और जब सत्ता हाथ से गई, तब भी उनकी गरिमा बनी रही। यही कारण है कि उन्हें केवल एक प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादा के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है।