राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने 1943 के बंगाल अकाल को याद करते हुए इसके बारे में देश की चुप्पी पर सवाल उठाया। आईआईटी मद्रास के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए उन्होंने कहा कि इस भयानक त्रासदी में लाखों लोग भूख से मर गए, फिर भी इसे देश की स्मृति में जगह नहीं मिली। डोभाल ने पूछा, “अगर आज पांच लाख लोग भूख से मरें तो पूरा देश हिल जाएगा, लेकिन बंगाल अकाल की बात क्यों नहीं होती?” उन्होंने युवाओं से अगले 22 सालों तक इस तरह की विफलताओं से सबक लेने और देश के लिए समर्पित रहने को कहा।
1943 में जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था, बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। जापान ने बर्मा पर कब्जा कर लिया था और ब्रिटिश सरकार को डर था कि बंगाल अगला लक्ष्य हो सकता है। इस डर से उन्होंने बंगाल के तटीय इलाकों में हजारों नावों को जब्त कर लिया और गांवों के अनाज गोदाम खाली कर दिए। खड़ी फसलों को भी नष्ट कर दिया गया जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में खाने की आपूर्ति ठप हो गई। नतीजा यह हुआ कि अनाज की कीमतें आसमान छूने लगीं और आम लोग भूखे मरने लगे।
गोबर तक खाने को मजबूर
इस अकाल में हालात इतने खराब हो गए कि लोग घास, मिट्टी और जानवरों का गोबर तक खाने को मजबूर हो गए। कुछ लोगों ने अपने बच्चों को चावल के बदले बेच दिया। कोलकाता और आसपास के इलाकों में सड़कों पर लाशें बिछ गईं। लोग रेलवे स्टेशनों, मंदिरों और बाजारों के बाहर भूख से मरने लगे। इतिहासकारों के अनुसार, इस अकाल में लगभग 30 से 60 लाख लोग मरे लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने मदद के लिए भेजे गए अनाज को रोक दिया। उनके इस रवैये ने त्रासदी को और भयावह बना दिया।
इतिहास को याद करने की जरूरत
अजीत डोभाल ने इस भूल चुके इतिहास को याद करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि इतिहास केवल विजेताओं की कहानी नहीं होना चाहिए, बल्कि उन लोगों की पीड़ा को भी दर्ज करना चाहिए जिनकी आवाज दब गई। बंगाल अकाल न सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना है बल्कि यह एक चेतावनी भी है कि राजनीतिक उदासीनता और गलत नीतियां कितनी भयानक तबाही मचा सकती हैं। आज भी इस त्रासदी के लिए कोई राष्ट्रीय स्मारक या वार्षिक स्मरण नहीं है जो इसके प्रति हमारी सामूहिक भूल को दर्शाता है।




