सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा की उस याचिका पर सवाल उठाए, जिसमें उन्होंने नकदी बरामदगी मामले में आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को अमान्य करने की मांग की है। जांच समिति ने वर्मा को कदाचार का दोषी ठहराया था, जब मार्च में उनके दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहते हुए उनके सरकारी आवास से बड़ी मात्रा में जली हुई नकदी बरामद हुई थी। जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए.जी. मसीह की पीठ ने वर्मा के वकील कपिल सिब्बल से पूछा कि वह जांच समिति के समक्ष क्यों पेश हुए और रिपोर्ट जारी होने तक इंतजार क्यों किया।
न्यायालय ने वर्मा की याचिका में शामिल पक्षकारों और आंतरिक जांच रिपोर्ट को दाखिल न करने पर भी सवाल उठाए। कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि संवैधानिक व्यवस्था के तहत न्यायाधीशों के खिलाफ सार्वजनिक बहस या मीडिया में आरोप लगाना प्रतिबंधित है। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर वीडियो जारी करना भी नियमों के खिलाफ है। पीठ ने सिब्बल को याचिका में पक्षकारों का ज्ञापन ठीक करने और बुलेट प्वाइंट में तर्क लिखकर पेश करने को कहा। इस मामले की अगली सुनवाई 30 जुलाई को होगी।
सिफारिश को रद्द करने की मांग
जस्टिस वर्मा ने अपनी याचिका में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की उस सिफारिश को रद्द करने की मांग की, जिसमें उन्होंने संसद से वर्मा के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने का आग्रह किया था। वर्मा ने दावा किया कि जांच समिति ने साक्ष्य पेश करने का भार उन पर डाला और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता की अनदेखी करते हुए पहले से तय धारणा के आधार पर निष्कर्ष निकाला। उन्होंने कहा कि उन्हें पूर्ण और निष्पक्ष सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया।
घटनास्थल का किया था दौरा
जांच समिति, जिसकी अध्यक्षता पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शील नागू ने की, ने 10 दिन तक 55 गवाहों से पूछताछ की और घटनास्थल का दौरा किया। समिति ने पाया कि वर्मा और उनके परिवार का स्टोर रूम पर नियंत्रण था, जहां आग लगने के बाद जली हुई नकदी मिली, जिससे उनका कदाचार सिद्ध होता है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने इस रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर वर्मा के खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की थी।





