बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को स्पष्ट कर दिया कि यदि वे सितंबर तक यह साबित कर दें कि पूरी प्रक्रिया अवैध या अनुचित है तो अदालत उस प्रक्रिया को रोक सकती है। अदालत ने कहा कि जरूरत पड़ी तो सुनवाई तेज़-तर्रार तरीके से आगे बढ़ाई जाएगी, ताकि किसी को भी शिकायत के न सुने जाने का मौका न मिले। यह टिप्पणी तब आई जब याचिकाकर्ताओं ने बताया कि बहुत बड़ी संख्या लगभग पांच करोड़ नामों की फिर से पड़ताल चल रही है और केवल कुछ महीनों का समय दिया गया है।
याचिकाकर्ताओं के आरोप
याचिकाओं में कहा गया है कि SIR नामक यह अभ्यास “इंटेंसिव डिलिशन” जैसा प्रतीत होता है, यानी बड़े पैमाने पर नाम हटाने का जोखिम है और इससे लाखों नागरिक अभिकर्ता (voters) से वंचित हो सकते हैं। वरिष्ठ वकील और नेताओं ने अदालत में दलील दी कि ऐसी जल्दीबाज़ी में दिए गए समय में सही तरीके से सत्यापन सम्भव नहीं है और विशेषकर गरीब, प्रवासी और दस्तावेज-कम परिवारों के मतदाता प्रभावित होंगे। कांग्रेस की ओर से पेश अभिषेक मनु सिंघवी और अन्य प्रतिनिधियों ने यह चिंता जताई कि पुराने वोटर-लिस्ट में दर्ज लगभग 5 करोड़ लोगों की फिर से जांच कर केवल कुछ महीनों में निपटा देना व्यावहारिक नहीं है और इससे व्यापक असमानता उत्पन्न होने का खतरा है।
चुनाव आयोग की पक्षपात
चुनाव आयोग (ECI) की ओर से पेश वकील ने अदालत को आश्वस्त किया कि इतनी बड़े अभ्यास में छोटी-मोटी त्रुटियाँ संभव हैं और ड्राफ्ट रोल में हुई ग़लतियों को अंतिम सूची में सुधारा जाएगा। आयोग ने यह भी कहा कि किसी के नाम को बिना नोटिस और सुनवाई के स्थायी रूप से हटाया नहीं जाएगा। हर मामले में उचित नोटिस, सुनवाई और कारण बताने वाला आदेश ज़रूरी होगा। सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को निर्देश दिया कि वह Fakten और आंकड़े तैयार रखे, कितने नाम हटाए जा रहे हैं, कितने लोगों का प्रमाण मांगा गया और किस आधार पर कार्रवाई की जा रही है ,क्योंकि अदालत जरूरत पड़ने पर सीधे आयोग से संबोधित प्रश्न पूछेगी। साथ ही कोर्ट ने यह रेखांकित किया कि आधार (Aadhaar) को नागरिकता का निर्णायक प्रमाण नहीं माना जा सकता।
कौन-कौन याचिकाकर्ता हैं
मामले में कई राजनीतिक और नागरिक संगठन याचिकाकर्ता हैं, जिनमें कांग्रेस के नेतागण (सदस्य-दल-प्रतिनिधि), राजनीतिक नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ एनजीओ भी शामिल हैं। याचिकाओं में चुनाव आयोग के निर्णय के संवैधानिक और वैधानिक अधिकारों, तथा नागरिकों के मताधिकार के संरक्षण से जुड़े सशक्त सवाल उठाए गए हैं। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि यदि किसी को चुनाव लड़ने का इरादा है और अचानक यह सूचना मिलती है कि उसका नाम ड्राफ्ट-लिस्ट में गायब है, तो वह गंभीर रूप से प्रभावित होगा, यह प्रक्रिया प्रतिद्वंद्वी को बाहर करने का साधन बन सकती है। अदालत ने कहा कि यह मुद्दा गंभीर है और यदि बड़े पैमाने पर नाम हटाए गए हों तो वह हस्तक्षेप करेगी।
समय सीमा और न्यायिक-निगरानी की जरूरत
यह मामला केवल तकनीकी मतदाता-सूची संशोधन का प्रश्न नहीं है, इसमें लोकतंत्र के मूल सिद्धांत, मताधिकार की सार्वभौमिकता और चुनावों की निष्पक्षता का प्रश्न जुड़ा है। तेज़ी से होने वाली प्रक्रियाएं यदि पारदर्शिता और पर्याप्त शिकायत निवारण तंत्र के बिना हों तो जोखिम बढ़ जाता है कि गरीब या दस्तावेज-हीन नागरिकों का वोट-अधिकार प्रभावित हो। सुप्रीम कोर्ट की सावधानी इसीलिए महत्वपूर्ण है, अदालत ने स्पष्ट संदेश दिया है कि यदि हक़ीक़त में बड़े पैमाने पर वंचन सिद्ध हुआ तो वह प्रक्रिया को रद्द भी कर सकती है। साथ ही चुनाव आयोग को भी यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह हर कदम का लेखा-जोखा और आंकड़े अदालत के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए तैयार रखे।
सुनवाई जारी और संभावित निर्णय
अगले हफ्तों में अदालत सुनवाई शीघ्रता से जारी रख सकती है और यदि याचिकाकर्ता संवेदनशील तथ्यों को साबित कर पाते हैं तो सितंबर से पहले ही निर्देश आ सकते हैं। चुनाव आयोग ने फाइनल ड्राफ्ट लिस्ट 30 सितंबर तक प्रकाशित करने का इरादा जताया है, पर सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि यदि फाइनल लिस्ट में बड़ी संख्या में लोगों के हटाए जाने के प्रमाण मिलते हैं तो अदालत तत्काल हस्तक्षेप करेगी। मामले की प्रकृति और आगे की दलीलों के आधार पर यह विवाद न केवल कानूनी रूप लेगा बल्कि राजनीतिक बहस का भी केंद्र बना रहेगा।





