लोकसभा में मंगलवार को सूचित किया गया कि केंद्र सरकार ने आधिकारिक संचार, केंद्रीय सेवाओं या शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी को अनिवार्य करने के लिए कोई निर्देश जारी नहीं किया है। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने डीएमके सांसद कालानिधि वीरास्वामी के एक लिखित प्रश्न के जवाब में यह स्पष्ट किया। वीरास्वामी ने पूछा था कि क्या सरकार ने हिंदी को अनिवार्य करने के लिए कोई निर्देश जारी किया है। राय ने संक्षेप में जवाब दिया, “नहीं, महोदय।”
एक अन्य प्रश्न के जवाब में डीएमके सांसद माथेस्वरन वीएस ने 2014 से हिंदी के प्रचार पर खर्च किए गए धन के बारे में जानकारी मांगी थी। इसके जवाब में राय ने बताया कि 2014-15 से 2024-25 तक आधिकारिक भाषा विभाग के बजट से 736.11 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। यह राशि हिंदी के प्रचार और विकास से संबंधित विभिन्न गतिविधियों पर खर्च की गई है।
हिंदी को लेकर बहस
इस बयान का राजनीतिक महत्व इसलिए है क्योंकि हिंदी के उपयोग को लेकर देश में समय-समय पर बहस छिड़ती रही है, खासकर गैर-हिंदी भाषी राज्यों में। दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु जैसे राज्यों में, हिंदी को अनिवार्य करने की किसी भी संभावित नीति का विरोध होता रहा है। डीएमके जैसे क्षेत्रीय दलों ने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए हैं, क्योंकि वे इसे भाषाई विविधता और क्षेत्रीय पहचान पर अतिक्रमण के रूप में देखते हैं।
राजनीतिक विश्लेषण
नित्यानंद राय का यह बयान केंद्र सरकार की रणनीति को दर्शाता है, जो भाषाई विवादों से बचने की कोशिश कर रही है। हिंदी को बढ़ावा देने के लिए भारी-भरकम धनराशि खर्च करने के बावजूद सरकार ने इसे अनिवार्य करने से स्पष्ट रूप से परहेज किया है, जो गैर-हिंदी भाषी राज्यों में राजनीतिक संवेदनशीलता को दर्शाता है। डीएमके सांसदों के सवाल इस मुद्दे को राष्ट्रीय मंच पर लाकर केंद्र की भाषा नीति पर दबाव बनाने की कोशिश के रूप में देखे जा सकते हैं। यह स्थिति यह भी संकेत देती है कि सरकार राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय विविधता के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रही है, ताकि भाषा के मुद्दे पर अनावश्यक विवाद से बचा जा सके।





